श्री हुज़ूर महाराज जी ने फरमाया कि दया तो हुई थी लेकिन तुमने अपने हिस्से की दया एक मज़दूर को दे दी
” चार युग एक दूसरे के बाद चक्कर लगा रहे हैं – सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग। हरएक युग में हमारे जीवन की परिस्थितियां भिन्न-भिन्न होती हैं। सतयुग में हमारी उम्र बहुत लम्बी थी, हमारा ख़्याल भी दुनिया में ज्यादा फैला हुआ नहीं था और हमारा स्वास्थ्य भी अच्छा था। परन्तु जैसे जैसे युग पलटते गए, हमारी उम्र भी छोटी होती गई और हमारा स्वास्थ्य भी कमज़ोर होता गया। कलियुग में तो हम देख रहे हैं कि कोई भाग्यशाली जीव ही साठ-सत्तर वर्ष की आयु बिताकर यहां से जाता है, स्वास्थ्य भी आप जानते हैं कि घंटा डेढ़ घंटा भजन में चौकड़ी मारकर बैठना ही हमारे लिए मुश्किल हो जाता है और अगर किसी समस्या पर विचार करना हो तो ख़्याल पांच-सात मिनट भी एक जगह स्थिर नहीं रह सकता, दुनिया भर की बातें सोचना शुरू कर देता है। सो जो साधन हमें सतयुग में काम देते थे, वे अब कलियुग में काम नहीं दे सकते। गुरु अमरदास जी फ़रमाते हैं कि भाई ! कलियुग में आकर कलियुग का धर्म पढ़ने की कोशिश करो। वह क्या है ? ‘ ऐथे अग्गे हर नाम सखाई ।। अगर शरीर में बैठकर भी हम चार दिन सुख और शांति से काटना चाहते हैं तो हमें शब्द की कमाई करनी चाहिए, नाम की कमाई करनी चाहिए। गुरु साहिब फ़रमाते हैं :- अब कलियुग आयो रे, इक नाम बोवहो बोवहो ।। यही स्वामी जी महाराज फ़रमाते हैं:-
कलजुग कर्म धर्म नहीं कोई। नाम बिना उद्धार न होई ।। “
अत: सतगुरु के हुक्म के अनुसार बिना नागा रोज ख़ुशी व बगैर किसी डर के भजन सुमिरन करते रहें, आपकी रहनुमाई के लिए सतगुरु हमेशा अंतर में आपके साथ – साथ हैं। “
(1)- ★★★ हुज़ूर फरमाया करते थे कि_
हम जब अपने घर पे कोई मजदूर काम में लगा के उसकी मजदूरी दे सकते हैं। तो क्या वो परमात्मा हमें हमारे परमार्थ के बदले में कुछ नहीं देगा??हम उसके बच्चो के लिए परमार्थ करते हैं तो सतगुरु जी भी हमारे कई कर्म काट देते हैं,। उस सत्संगी ने जब सेवाकी तो दो दिन के बाद उसके घर में अजीब सी घटना हो गई। उसकी भैंस बीमार हो गयी और उसी दिन ही मर गई। अपनी भैंस के मर जाने से वो सत्संगी बहुत ही दुखी हुआ।अब उस सत्संगी ने अपने कर्मों को नहीं देखा सीधा हुज़ूर महाराज जी के सरूप के आगे आके महाराज जी को ही दोष देने लग गया। और बोला,,”आज से मैं आपके डेरे में नहीं आऊंगा। कोई रिश्ता नहीं रखना ।”अगले दिन वो रात को सोया हुआ था। कि अचानक ही कोई आवाज़ हुई और वो अपने बिस्तर से उठ बैठा क्या देखता है,,कि हुज़ूर महाराज जी उसके बेड के सामने पड़ी कुर्सी पे विराजमान है।हुज़ूर महराज जी फरमाने लगे,, “वाह भाई” एक भैंस मर गयी और तुमने सतगुर पर दोष डालना शुरू कर दिया, और रिश्ता तोड़ दिया अपने मुर्शिद से बस क्या इतना ही विश्वास है अपने सतगुर पे…!!! तुम्हे पता है कि तेरा इकलौता बेटा मरने वाला था। और हमने काल को तेरे बेटे की जगह तेरी भैस को ले जाने का हुक्म दिया।” फिर महाराज जी ने उसे वो सारी बाते दिखाई जिस में उसके बेटे की मौत आ चुकी थी।और महाराज जी ने काल को भैंस की तरफ इशारा कर दिया कि इस लड़के को छोड़ के उस भैंस को ले जाये।उस सत्संगी ने महाराज जी के आगे मत्था टेका और रोने लगा। सतगुरू जो करता है वो हमेशा हमारे भले के लिए करता है और उसमें कोई राज होता है इसलिए अपने सतगुरू पर हमेशा दृढ विशवास बनाए रखना चाहिए।
(2)- सेवा कर्म काटने का सबसे आसान ज़रिया है
श्री हुज़ूर महाराज जी के समय में एक बहुत धनी सेवादार हुआ करते थे । सेवा की तलाश में वह हुज़ूर महाराज जी के पास आए तो हुज़ूर महाराज जी ने उन्हें कुएँ में से पानी निकाल कर प्याऊ लगाने की सेवा बक्शी
सेवादार बहुत धनी था और सिर्फ सफेद कपड़े ही पहनता था लेकिन जब वो कुएँ में से पानी निकाल कर मिट्टी में चलता था तो उसकी सफेद पैंट पर कीचड़ व मिट्टी के दाग लग जाते थे
उसने सोचा कि इस सेवा से तो मेरे सफेद कपड़े गंदे हो रहे हैं तो उसने एक नौकर को इस सेवा के लिये दिहाड़ी पर रख लिया
सेवा चलती रही वो मजदूर उस धनी सेवादार के हिस्से की सेवा बड़ी खुशी से करता रहा
कुछ समय बाद उस अमीर सेवादार की तबियत ख़राब हो गई और उसने बिस्तर पकड़ लिया ,हालत इतनी बिगड़ गई कि बिस्तर पर लेटे हुए उसे उल्टी लग जाती कभी शौच कपड़ों म़े ही निकल जाता उसके सारे कपड़े बुरी तरह ख़राब हो जाते थे
श्री हुज़ूर महाराज जी उसका हाल पूछने के लिए आए तो उस सेवादार ने रोते हुए कहा हुज़ूर दया करो
श्री हुज़ूर महाराज जी ने फरमाया कि दया तो हुई थी लेकिन तुमने अपने हिस्से की दया एक मज़दूर को दे दी
हुज़ूर ने प्यार से पूछा कि प्याऊ की सेवा करते हुए कपड़ों पर थोड़ी सी मिट्टी लगना ठीक था कि जो अब हो रहा है वो ठीक है
फिर उसे समझाया अगर तुम कुएँ से पानी लाने की सेवा में अपने सफेद कपड़े थोडे से मैले कर लेते तो तुम आज यहाँ हस्पताल में ना होते
हम बिल्कुल भी नहीं जानते कि सतगुरू हमारे कर्म कैसे काट रहे हैं। बस हमे तो उनके हुक़्म की पालना करनी है
ये तन भी उसका है इसे ढकने के लिए कपड़े भी उसी ने ही तो दिए हैं
अगर सेवा करते हुए सेवादार के कपड़े मैले या गन्दे हो जायें तो इसे भी सतगुरू की मौज समझना चाहिये जी
बशेष बात!
जन्म- जन्मान्तरों से हमारी आत्मा अपने मूलस्रोत परमात्मा से मिलन के लिये व्याकुल है , बेचैन है , दुःखी है , तड़फ रही है !! हरदम यही शिकायत —“रब का दीदार क्यों नहीं होता ? परमात्मा दिखलाई क्यों नहीं देता ?”
कमाल देखिए — सभी मानते हैं कि सर्वशक्तिमान परमात्मा तो सर्वव्यापक है , हमारे अपने ही अंदर भी है ; फिर भी उसे मिल नहीं पाते , उसके दर्शन नहीं कर पाते ,दीदार नहीं कर पाते
अब जरूरत होती है— एक सच्चे मार्गदर्शक पूर्ण सतगुरु की सच्चे मन से शरण में जाने की ! फिर कण-कण में , जर्रे-जर्रे में रब का दीदार होने लगेगा !! तब हम मान जाएंगे, जान जाएंगे
शाह तैथों वक्ख नहीं
ओह वेखन वाली आक्ख नहीं!
परमप्रिय परमात्मा हमसे पृथक नहीं हैं , हमसे दूर या अलग नहीं हैं ! बस हममें ही उन्हें देखने वाली आंखें न थी !
(3)- कोढ़ियों_को_प्रसाद
हम कोढ़ीखाने पहुंचे ही थे कि दीनदयाल जी की मोटर पहुंच गई रंबी नूर और देवासिंग जी (जो अब गद्दी नशीन है) उतरे सन्तों के सुन्दर मुखड़े और शीतल दर्शन पा कर संगत निहाल हो गई ।बराड़े में दो कुरर्सी सजी हुई थीं।दोनों शहनशाह जी बैठ गये ।मैं गुनाहगार दीनदयाल जी की कुरर्सी के पीछे बैठ थी ।शहनशाह जी प्रसाद बांटने लग गये । जो कोढ़ी प्रसाद लेने आये तो दीनदयाल जी दया के समुन्दर उस बेचारे पर अमृत भरी दृष्टि डालनें के लिए पूछें,”क्यो भाई कमीज ठीक है ? तेरे आ जायेगी । “हजूर जी का असली मकसद यह था कि हमारी ओर देख लें ,इनका भला हो जावे अब कोई न देखें और कोई चाहे हजूर कितना ही बुलायें ,उनकी ओर देखते नहीं थे। तो हजूर फरमायें कितनें खोटे भाग्य हैं जो बुलाने पर भी मुह निचा करके चलें जाते है मालिक दया करता हैं मगर भाग्य किसके लायें एक कोढ़ी कोई सत्ताइस अट्टाइस साल की उमर का था ।हंसता हंसता सत्तगुरू जी के सामने आ कर कैहने लगा , जी अब तो बस करो । “सतगुरू जी ने फरमाया, “तेरे लिये तो यहां आये हैं “मैंने यह सब बाते सुन लीं । फिर गरीबनवाज एेसे एेसे कोढ़ियों की कोठरी में गयें जो बिचारे उठ नहीं सकते थे । सबने कहा,हजूर वहाँ न जइये ,बदबू हैं ” “नहीं भाई हम जायेगें । वह बेचारे वैसे ही कर्मो के मारे हए है और हम भी न जायें ? हमें तरस आता हैं हम जरूर जायेंगे “गरीबनवाज गये ,सबको प्साद दिया । फिर बच्चियों की ओर भी गये दाता जी फिर तरन तारन के डेरे वापस पहुंचे । आकर स्नान किया कपड़े बदले खाना खाया और लेटने लगे तो मैंने हाथ जोड़ कर अर्ज की , “दिनदायाल जी वह कौन था ? उसका क्या मतलब था जो कहता था हजूर से अब बस करो ओर हजूर ने फरमाया था तेरे लिए ही यहां आए हैं “शहनशाह जी हंस कर फरमाने लगे , ” जाने दे काको क्या पुछना है मैने फिर कहा । तब दीनदयाल जी ने दया करके फरमाया, “देख काको यह एक धारीवाल का सत्संगी था , बाबाजी (बाबा जयमलसिंह जी )का चिताया हुआ । यह बाबा जी को छोड़ गया ,निन्दक हो गया ।बाबाजी ने बहुत समझाया ,मगर न समझा , एक दिन हजूर स्वामी जी की भी निंदा करने लग गया । बाबा जी सह न सके ओर उन की रसना से निकल गया “जा तू कोढ़ी हो जा , फिर भी तुझे सन्त ही बख्शेगें बीबी , सन्तो को चेता हुआ जीव कितना ही खराब हो, मनुष्य जन्म से नीचे नहीं जाने देते । कोढ़ी बेशक हुआ मगर बना तो मनुष्य ही । मैंने बाबा जी का वचन पूरा करना था एक उसके लिए सबका भला हो गया बच्ची सत्गुरू का सिख खोटे कर्मो के कारण नरक को भी चला जाये तो सन्त अपने जीव को ठनडे करके लेने जाते है ।
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